सार
* अपनी इच्छाआंे को बढ़ा लेना अर्थात इच्छाशक्ति को कम कर लेना है। हमारी इच्छा से दुनिया तभी चलेगी जब इच्छा की जगह हमारी इच्छाशक्ति मजबूत होगी।
* किसी बात में हार खाने का मूल कारण है, बार -बार स्वयं को चेक न करना। जो समय- समय हमें विभिन्न माध्यमों से युक्तियां मिलती है उसे समय पर उसका उपयोग हम नही करते है।
* हमारी दिव्य बुद्धि हमारे लिए एक चेकिंग करने का यंत्र है। दिव्य बुद्धि के अभाव में हम जो रॉन्ग है उसे राइट समझ लेते है अथवा जो राइट है उसे रांग समझ लेते हैं।
विस्तार -
इच्छा शक्ति का अर्थ है- ऐसी शक्ति जिसके अनुसार हम अपनी आंतरिक शक्तियों को अपनी इच्छानुसार कब, कितना और कैसे प्रयोग करने में समर्थ हैं, इसके लिए स्वयं को शक्तिशाली महसूस करना है। इच्छा शक्ति के अभाव में हम अपने भीतर मौजूद सामना करने की शक्ति और सहन करने की शक्ति का प्रयोग नहीं कर पाते हैं। अर्थात् हमारे भीतर शक्ति मौजूद होते हुए भी जहां हमें सामना करना होता है वहा हम सहन करते है और जहाँ सहन करना होता है वहाँ हम सामना करने लगते है। इच्छाशक्ति वाला व्यक्ति न केवल स्वयं को बदल सकता है बल्कि पूरे युग को बदलने की क्षमता रखता है।
अपनी इच्छाआंे को बढ़ा लेना अर्थात इच्छाशक्ति को कम कर लेना है। हमारी इच्छा से दुनिया तभी चलेगी जब इच्छा की जगह हमारी इच्छाशक्ति मजबूत होगी। शक्तिशाली इच्छाशक्ति वाला व्यक्ति किसी व्यक्ति या वस्तु पर निर्भर नही होता है। यदि हमारी किसी व्यक्ति या वस्तु निर्भरता बढ़ती है, तब इसका अर्थ है कि हमारी इच्छाशक्ति कम होगी। अनेक के स्थान पर, किसी एक अधीन रहने पर इच्छाशक्ति बढ़ती है।
इच्छा शक्ति बढ़ाने के लिए हमें अपनी सोच और कार्य दोनो में समानता रखना चाहिए। ऐसा न हो कि हम सोचते-सोचते रह जाये लेकिन किसी प्रकार का कार्य न करें। कभी-कभी हम अनेक बार ऐसा भी अनुभव करते हैं, किसी विषय पर मन में कोई बात आती है और विचार आता है कि सोचा तो मैंने भी था लेकिन वह कार्य उसने कर लिया। सोचने के बावजूद उसी कार्य को मैं नही कर पाया। अर्थात सोचने के बाद जो व्यक्ति किसी कार्य को कर लेता है वह अपने लक्ष्य को प्राप्त कर लेता है।
सोचते-सोचते रह जाने का अर्थ-व्यर्थ संकल्प में उलझ जाना। व्यर्थ संकल्प इतनी वेग से हमारे भीतर चलता है कि उस पर हमारा कोई नियंत्रण नही रह पाता है। व्यर्थ संकल्प में अनावश्यक, बिना किसी बात के उदास होना, खुशी गायब होना, और पता नही क्यों अकेले में अच्छा लगने लगता है अथवा लगता है कि हम कही चले जाएं किन्तु जाए कहा? इस प्रकार के भाव प्रकट होने लगते हैं।
किसी बात में हार खाने का मूल कारण है, बार -बार स्वयं को चेक न करना। जो समय- समय हमें विभिन्न माध्यमों से युक्तियां मिलती है उसे समय पर उसका उपयोग हम नही करते है। इस कारण समय पर हम हार खाते रहते हैं। अर्थात हमारे पास युक्तियां तो हैं लेकिन समय पर हम उपयोग नहीं करते हैं, इसके परिणाम स्वरूप हमारे भीतर पश्चाताप के रूप स्मृति चलने लगती है कि ऐसा होता तो हम वैसे करते, वैसा होता तो हम ऐसे करते। लेकिन निरन्तर अपनी चेकिंग करने की आदत में कमी होने के कारण हमारे भीतर बदलाव भी नही हो पाता है।
हमारी दिव्य बुद्धि हमारे लिए एक चेकिंग करने का यंत्र है। दिव्य बुद्धि के अभाव में हम जो रॉन्ग है उसे राइट समझ लेते है अथवा जो राइट है उसे रांग समझ लेते हैं। यदि कोई यन्त्र ठीक ढ़ग से कार्य नहीं करता है तब उसका रिजल्ट भी उल्टा निकलेगा।
अनुभव की अथॉरिटी सर्व श्रेष्ठ अथॉरिटी है। अनुभव का प्रमाण सर्वश्रेष्ठ प्रमाण है। ज्ञान को जानना और ज्ञान के अनुभव स्वरूप की अथॉरिटी के साथ अपने कर्म में प्रयोग करना दोनों अलग-अलग बात है। यदि हम अपने अनुभव की अथॉरिटी की सीट पर सेट है तब हमारे सभी कर्म सफलता पूर्वक हांेगे। लेकिन अनुभव की अथॉरिटी की सीट पर सेट होने के लिये अटेंशन की जरूरत होती है।
परखने की शक्ति के अभाव में हम अपनी कमजोरी को कमजोरी नही समझते है। बल्कि सदैव अपने हमेशा सही और होशियार सिद्ध करने में लगे रहते है। हमारा जिद करने स्वभाव और सिद्ध करने का स्वभाव, अपनी कमजोरी को छिपाने के दो साधन है। यदि परखने की शक्ति का हमारे भीतर अभाव है। तब हम किसी गलत बात को ही सिद्ध करके जिद करने लगते हैं। लेकिन जितना ही गलत बात को हम छिपाते हैं, उतना ही उस बात को हम बड़ा कर लेते है। अर्थात परखने की शक्ति की कमी के कारण हम धोखा खा जाते है।
जहां पर एकाग्रता है वहाँ परखने की शक्ति स्वतः बढ़ जाती है। एकाग्रता अर्थात एक के साथ ,एकरस होकर लगन में मगन रहना। एकाग्रता की निशानी है, सदैव उमंग ,उत्साह में रहना। उमंग ,उत्साह की स्थिति में कल जो भी परसेंटेज था उससे ऊँची स्थिति में स्थित रहना है। इसे ही हम कह सकते हैं अपनी उमंग और उत्साह के साथ चलना।
जो व्यक्ति विघ्न डालने के निमित्त बनते हैं उन्हें विघ्नकारी नहीं समझना चाहिए, बल्कि उन्हें सदा पाठ पढ़ाने वाले, आगे बढ़ाने वाले और अनुभवी बनाने वाले शिक्षक समझना चाहिए। ऐसे व्यक्ति शिक्षक बनकर हमारे सामने आते हैं और हमे विघ्नों में पास कराकर अनुभवी बनाते हंै। इसलिए विघ्नकारी व्यक्ति को सामान्य दृष्टि से देखने के बजाए उन्हें सदा के लिए विघ्नों से पार कराने वाले और अचल बनाने के निमित्त समझना चाहिए। यह स्वीकार कर लेने पर, हमारी अनुभवों की अथॉरिटी और अधिक बढ़ती जायेगी।
निर्विघ्न बनना अर्थात हमें किसी व्यक्ति के रास्ते के लिए तो विघ्न बनना है और न ही अपने रास्ते में आने वाले विघ्नों से घबराना है। एक प्रकार का विघ्न पाठ पढाने आता है और दूसरे प्रकार का विघ्न हमें हलचल में डालता है। यदि हम रास्ते में आने वाले विघ्नों के पाठ को पढ़कर पक्के हो जायें तो वही विघ्न ,उसी कार्य मे लगन पैदा करेगा। लेकिन यदि हम विघ्नों को देखकर घबरा जांए तब हमारे कार्य के रजिस्टर में दाग पड़ जायेगा। हमारे कार्य के रजिस्टर में पड़ने वाला दाग हमारे स्मृति में रहता है, जो आगे के कार्य में पुनः शक्तिशाली विघ्न बनकर सामने आता है।
हमें अपनी सफलता को प्रत्यक्ष करना होगा। सफलता के प्रत्यक्षता का आधार है- दृढ प्रतिज्ञा। प्रश्न है, प्रतिज्ञा तो है लेकिन प्रत्यक्षता क्यो नही होती है? क्योकि एक है प्रतिज्ञा और दूसरी है दृढ़ प्रतिज्ञा। जान चली जाए किन्तु प्रतिज्ञा न जाये। इसे कहते हैं- दृढ़ प्रतिज्ञा। दृढ़ प्रतिज्ञा का अर्थ है, कोई भी परिस्थिति आ जाये लेकिन हमारे स्व की स्थिति हलचल में न आये। लेकिन हमारे सामने जब भी कोई परिस्थिति आती है तो हम बहानेबाजी का खेल खेलने लगते है। हमारे मन में विचार आता है कि ऐसा नही है,वैसा नही है,मेरा स्वभाव ही ऐसा है अथवा परिस्थिति ही ऐसी थी।
समझना ,चाहना और करना तीनो में एकरूपता और समानता होनी चाहिए। व्यर्थ संकल्प और विकल्प हमारे परखने की शक्ति को कमजोर करता है। एक को छोड़कर अनेक रास्ते पर बुद्धि के जाने से हम शक्तिशाली नही बल्कि कमजोर होंगे। बुद्धि के अनेक जगह कार्य करने से हम थकावट को महसूस करते हैं जिससे हम यथार्थ निर्णय नही ले सकते हैं। अर्थात व्यर्थ संकल्प और व्यर्थ विकल्प बुद्धि में थकावट पैदा करते है।
कोई व्यक्ति कितना भी होशियार हो, व्यर्थ संकल्प और व्यर्थ विकल्प के कारण उसके परखने और निर्णय की शक्ति में कमजोर होती है। कमजोर व्यक्ति के हार खाने का मुख्य कारण बुद्धि की सफाई न होना है। जितना अधिक हम व्यर्थ संकल्प से दूर होंगे उतना ही अधिक समर्थ संकल्प के समीप होंगे। जो सच्चे हैं वह हर परिस्थिति में, हर कर्म में सदा तृप्ति होकर प्राप्ति की खुशी में रहते हैं। इसलिए हमारे बुद्धि में सच्चाई और सफाई दोनों होने आवश्यक है। बुद्धि की सफाई के बाद ही ज्ञान को धारण किया जा सकता है। बुद्धि की सफाई के बाद मन की बातों को ग्रहण करने की ताकत मिलती है।
कभी-कभी किसी बात में हमारा मन नही करता है फिर भी वह बात बुद्धि में ठहर जाती है। अथवा हमारा मन तेज चल रहा है फिर भी मन मंे कोई बात नही ठहर पाती है। अर्थात जब मन और बुद्धि दोनो आत्मा के कंट्रोल में होंगे तभी बुद्धि और मन की गति भी समानता और एकरूपता होगी। मन के संकल्पो की स्पीड कम अधिक होते ही बुद्धि में ज्ञान ठहरने लगता है। अर्थात् हमें अपने संकल्पों की स्पीड को कम करके ठहराव लाने का अभ्यास करना होगा।
बुद्धि और मन की स्थिति में स्थिरता और ठहराव आने के कारण हमारे संकल्पो की गति कम हो जाती है। इससे हमें प्राप्त होने ज्ञान को ठहरने में मदद मिलती है। अर्थात कम मेहनत में अधिक रिजल्ट मिलता है और हमें थकावट कम महसूस होती है।
जो व्यक्ति सरल स्वभाव के होंगे उनमे समेटने की शक्ति सहज ही आ जाती है। क्योंकि सरल स्वभाव वाले व्यक्ति में व्यर्थ संकल्प भी नही चलता है, इसलिये उनका समय भी व्यर्थ नहीं जाता है। अर्थात हमें जटिलता के स्थान पर सरलता को महत्व देना चाहिए।
निगेटिव संकल्प को मोड़ने और ब्रेक लगाने का अभ्यास करना जरूरी है। बिना समय गवाएं समर्थ संकल्प करना है अर्थात संकल्प किया और हमारा संकल्प सिद्ध हुआ। यह योग की रिद्धि-सिद्धि है। जो सिद्ध को प्राप्त होते है उनके संकल्प ,शब्द और कर्म भी सिद्ध होते है। उनका एक भी संकल्प व्यर्थ नही उठता है। सिद्ध व्यक्ति का संकल्प भी वही उठेगा जो सिद्ध होगा। उनके एक-एक संकल्प की वैल्यू है। ऐसी मान्यता कि जो व्यक्ति अपने श्रेठ संकल्पो को संभाल कर रखेगे वे सदा सम्पन्न रहेंगे और व्यर्थ संकल्प न चलने के कारण धोखा नही खायेंगे।
हम स्वयं को चेक करें कि अभी तक कितनी बार फेल हुए है। यदि हमें विजय प्राप्त हुई भी है तो इसमे कितना समय लगा है। इस यात्रा में हमारे स्व की स्थिति कैसी रही है।
महीन बुद्धि वाले व्यक्ति हर परिस्थिति में अपने को मोल्ड कर लेते है। ऐसे व्यक्ति में सामना करने का साहस होता है और कभी समस्या से घबराते नही है। जब हम हल्के होंगे तभी अपने को मोल्ड कर सकेंगे। अर्थात् जब हम नरम और गरम दोनो होंगे तभी अपने को मोल्ड कर सकेंगे। यदि किसी एक की भी कमी होगी तो मोल्ड नही हो सकेंगे।
कोई चीज गरम् करके ही नरम किया जाता है इसके बाद उसे मोल्ड किया जाता है। चेक करें कि हमारे बुद्धि की तराजू में नरम और गरम दोनों एक समान रहते है। नरमाई और गरमाई में सन्तुलन होना जरूरी है। नरमाई रूप- स्नेह स्वरूप अर्थात निर्माण स्वरूप और गरमाई रूप- शक्ति स्वरूप है। यदि स्नेह -निर्माण स्वरूप और शक्ति स्वरूप दोनों में से किसी एक चीज की कमी होगी तब हम अपने को मोल्ड नही कर पाएंगे। अर्थात कभी गर्म तो कभी नरम होने की जरूरत है। कभी-कभी अति निर्माणता और स्नेह अथवा अति शक्तिशाली का अनुभव भी नुकसान करती है। इन दोनांे विशेषताओं में जितनी भी समानता होगी उतनी ही सफलता होगी।
(यह लेख प्रजापिता ब्रह्ामाकुमारी राज योग द्वारा चलाये जाने वाले प्रतिदिन के मुरली ज्ञान पर आधारित है।)
दूसरा अध्याय अगले दिन के लिए ................................................ जारी
प्रस्तुति - मनोज कुमार श्रीवास्तव
सहायक निदेशक/प्रभारी मीडिया सेन्टर
विधान सभा,देहरादून।
मो0 9412074595
* अपनी इच्छाआंे को बढ़ा लेना अर्थात इच्छाशक्ति को कम कर लेना है। हमारी इच्छा से दुनिया तभी चलेगी जब इच्छा की जगह हमारी इच्छाशक्ति मजबूत होगी।
* किसी बात में हार खाने का मूल कारण है, बार -बार स्वयं को चेक न करना। जो समय- समय हमें विभिन्न माध्यमों से युक्तियां मिलती है उसे समय पर उसका उपयोग हम नही करते है।
* हमारी दिव्य बुद्धि हमारे लिए एक चेकिंग करने का यंत्र है। दिव्य बुद्धि के अभाव में हम जो रॉन्ग है उसे राइट समझ लेते है अथवा जो राइट है उसे रांग समझ लेते हैं।
इच्छा शक्ति का अर्थ है- ऐसी शक्ति जिसके अनुसार हम अपनी आंतरिक शक्तियों को अपनी इच्छानुसार कब, कितना और कैसे प्रयोग करने में समर्थ हैं, इसके लिए स्वयं को शक्तिशाली महसूस करना है। इच्छा शक्ति के अभाव में हम अपने भीतर मौजूद सामना करने की शक्ति और सहन करने की शक्ति का प्रयोग नहीं कर पाते हैं। अर्थात् हमारे भीतर शक्ति मौजूद होते हुए भी जहां हमें सामना करना होता है वहा हम सहन करते है और जहाँ सहन करना होता है वहाँ हम सामना करने लगते है। इच्छाशक्ति वाला व्यक्ति न केवल स्वयं को बदल सकता है बल्कि पूरे युग को बदलने की क्षमता रखता है।
अपनी इच्छाआंे को बढ़ा लेना अर्थात इच्छाशक्ति को कम कर लेना है। हमारी इच्छा से दुनिया तभी चलेगी जब इच्छा की जगह हमारी इच्छाशक्ति मजबूत होगी। शक्तिशाली इच्छाशक्ति वाला व्यक्ति किसी व्यक्ति या वस्तु पर निर्भर नही होता है। यदि हमारी किसी व्यक्ति या वस्तु निर्भरता बढ़ती है, तब इसका अर्थ है कि हमारी इच्छाशक्ति कम होगी। अनेक के स्थान पर, किसी एक अधीन रहने पर इच्छाशक्ति बढ़ती है।
इच्छा शक्ति बढ़ाने के लिए हमें अपनी सोच और कार्य दोनो में समानता रखना चाहिए। ऐसा न हो कि हम सोचते-सोचते रह जाये लेकिन किसी प्रकार का कार्य न करें। कभी-कभी हम अनेक बार ऐसा भी अनुभव करते हैं, किसी विषय पर मन में कोई बात आती है और विचार आता है कि सोचा तो मैंने भी था लेकिन वह कार्य उसने कर लिया। सोचने के बावजूद उसी कार्य को मैं नही कर पाया। अर्थात सोचने के बाद जो व्यक्ति किसी कार्य को कर लेता है वह अपने लक्ष्य को प्राप्त कर लेता है।
सोचते-सोचते रह जाने का अर्थ-व्यर्थ संकल्प में उलझ जाना। व्यर्थ संकल्प इतनी वेग से हमारे भीतर चलता है कि उस पर हमारा कोई नियंत्रण नही रह पाता है। व्यर्थ संकल्प में अनावश्यक, बिना किसी बात के उदास होना, खुशी गायब होना, और पता नही क्यों अकेले में अच्छा लगने लगता है अथवा लगता है कि हम कही चले जाएं किन्तु जाए कहा? इस प्रकार के भाव प्रकट होने लगते हैं।
किसी बात में हार खाने का मूल कारण है, बार -बार स्वयं को चेक न करना। जो समय- समय हमें विभिन्न माध्यमों से युक्तियां मिलती है उसे समय पर उसका उपयोग हम नही करते है। इस कारण समय पर हम हार खाते रहते हैं। अर्थात हमारे पास युक्तियां तो हैं लेकिन समय पर हम उपयोग नहीं करते हैं, इसके परिणाम स्वरूप हमारे भीतर पश्चाताप के रूप स्मृति चलने लगती है कि ऐसा होता तो हम वैसे करते, वैसा होता तो हम ऐसे करते। लेकिन निरन्तर अपनी चेकिंग करने की आदत में कमी होने के कारण हमारे भीतर बदलाव भी नही हो पाता है।
हमारी दिव्य बुद्धि हमारे लिए एक चेकिंग करने का यंत्र है। दिव्य बुद्धि के अभाव में हम जो रॉन्ग है उसे राइट समझ लेते है अथवा जो राइट है उसे रांग समझ लेते हैं। यदि कोई यन्त्र ठीक ढ़ग से कार्य नहीं करता है तब उसका रिजल्ट भी उल्टा निकलेगा।
अनुभव की अथॉरिटी सर्व श्रेष्ठ अथॉरिटी है। अनुभव का प्रमाण सर्वश्रेष्ठ प्रमाण है। ज्ञान को जानना और ज्ञान के अनुभव स्वरूप की अथॉरिटी के साथ अपने कर्म में प्रयोग करना दोनों अलग-अलग बात है। यदि हम अपने अनुभव की अथॉरिटी की सीट पर सेट है तब हमारे सभी कर्म सफलता पूर्वक हांेगे। लेकिन अनुभव की अथॉरिटी की सीट पर सेट होने के लिये अटेंशन की जरूरत होती है।
परखने की शक्ति के अभाव में हम अपनी कमजोरी को कमजोरी नही समझते है। बल्कि सदैव अपने हमेशा सही और होशियार सिद्ध करने में लगे रहते है। हमारा जिद करने स्वभाव और सिद्ध करने का स्वभाव, अपनी कमजोरी को छिपाने के दो साधन है। यदि परखने की शक्ति का हमारे भीतर अभाव है। तब हम किसी गलत बात को ही सिद्ध करके जिद करने लगते हैं। लेकिन जितना ही गलत बात को हम छिपाते हैं, उतना ही उस बात को हम बड़ा कर लेते है। अर्थात परखने की शक्ति की कमी के कारण हम धोखा खा जाते है।
जहां पर एकाग्रता है वहाँ परखने की शक्ति स्वतः बढ़ जाती है। एकाग्रता अर्थात एक के साथ ,एकरस होकर लगन में मगन रहना। एकाग्रता की निशानी है, सदैव उमंग ,उत्साह में रहना। उमंग ,उत्साह की स्थिति में कल जो भी परसेंटेज था उससे ऊँची स्थिति में स्थित रहना है। इसे ही हम कह सकते हैं अपनी उमंग और उत्साह के साथ चलना।
जो व्यक्ति विघ्न डालने के निमित्त बनते हैं उन्हें विघ्नकारी नहीं समझना चाहिए, बल्कि उन्हें सदा पाठ पढ़ाने वाले, आगे बढ़ाने वाले और अनुभवी बनाने वाले शिक्षक समझना चाहिए। ऐसे व्यक्ति शिक्षक बनकर हमारे सामने आते हैं और हमे विघ्नों में पास कराकर अनुभवी बनाते हंै। इसलिए विघ्नकारी व्यक्ति को सामान्य दृष्टि से देखने के बजाए उन्हें सदा के लिए विघ्नों से पार कराने वाले और अचल बनाने के निमित्त समझना चाहिए। यह स्वीकार कर लेने पर, हमारी अनुभवों की अथॉरिटी और अधिक बढ़ती जायेगी।
निर्विघ्न बनना अर्थात हमें किसी व्यक्ति के रास्ते के लिए तो विघ्न बनना है और न ही अपने रास्ते में आने वाले विघ्नों से घबराना है। एक प्रकार का विघ्न पाठ पढाने आता है और दूसरे प्रकार का विघ्न हमें हलचल में डालता है। यदि हम रास्ते में आने वाले विघ्नों के पाठ को पढ़कर पक्के हो जायें तो वही विघ्न ,उसी कार्य मे लगन पैदा करेगा। लेकिन यदि हम विघ्नों को देखकर घबरा जांए तब हमारे कार्य के रजिस्टर में दाग पड़ जायेगा। हमारे कार्य के रजिस्टर में पड़ने वाला दाग हमारे स्मृति में रहता है, जो आगे के कार्य में पुनः शक्तिशाली विघ्न बनकर सामने आता है।
हमें अपनी सफलता को प्रत्यक्ष करना होगा। सफलता के प्रत्यक्षता का आधार है- दृढ प्रतिज्ञा। प्रश्न है, प्रतिज्ञा तो है लेकिन प्रत्यक्षता क्यो नही होती है? क्योकि एक है प्रतिज्ञा और दूसरी है दृढ़ प्रतिज्ञा। जान चली जाए किन्तु प्रतिज्ञा न जाये। इसे कहते हैं- दृढ़ प्रतिज्ञा। दृढ़ प्रतिज्ञा का अर्थ है, कोई भी परिस्थिति आ जाये लेकिन हमारे स्व की स्थिति हलचल में न आये। लेकिन हमारे सामने जब भी कोई परिस्थिति आती है तो हम बहानेबाजी का खेल खेलने लगते है। हमारे मन में विचार आता है कि ऐसा नही है,वैसा नही है,मेरा स्वभाव ही ऐसा है अथवा परिस्थिति ही ऐसी थी।
समझना ,चाहना और करना तीनो में एकरूपता और समानता होनी चाहिए। व्यर्थ संकल्प और विकल्प हमारे परखने की शक्ति को कमजोर करता है। एक को छोड़कर अनेक रास्ते पर बुद्धि के जाने से हम शक्तिशाली नही बल्कि कमजोर होंगे। बुद्धि के अनेक जगह कार्य करने से हम थकावट को महसूस करते हैं जिससे हम यथार्थ निर्णय नही ले सकते हैं। अर्थात व्यर्थ संकल्प और व्यर्थ विकल्प बुद्धि में थकावट पैदा करते है।
कोई व्यक्ति कितना भी होशियार हो, व्यर्थ संकल्प और व्यर्थ विकल्प के कारण उसके परखने और निर्णय की शक्ति में कमजोर होती है। कमजोर व्यक्ति के हार खाने का मुख्य कारण बुद्धि की सफाई न होना है। जितना अधिक हम व्यर्थ संकल्प से दूर होंगे उतना ही अधिक समर्थ संकल्प के समीप होंगे। जो सच्चे हैं वह हर परिस्थिति में, हर कर्म में सदा तृप्ति होकर प्राप्ति की खुशी में रहते हैं। इसलिए हमारे बुद्धि में सच्चाई और सफाई दोनों होने आवश्यक है। बुद्धि की सफाई के बाद ही ज्ञान को धारण किया जा सकता है। बुद्धि की सफाई के बाद मन की बातों को ग्रहण करने की ताकत मिलती है।
कभी-कभी किसी बात में हमारा मन नही करता है फिर भी वह बात बुद्धि में ठहर जाती है। अथवा हमारा मन तेज चल रहा है फिर भी मन मंे कोई बात नही ठहर पाती है। अर्थात जब मन और बुद्धि दोनो आत्मा के कंट्रोल में होंगे तभी बुद्धि और मन की गति भी समानता और एकरूपता होगी। मन के संकल्पो की स्पीड कम अधिक होते ही बुद्धि में ज्ञान ठहरने लगता है। अर्थात् हमें अपने संकल्पों की स्पीड को कम करके ठहराव लाने का अभ्यास करना होगा।
बुद्धि और मन की स्थिति में स्थिरता और ठहराव आने के कारण हमारे संकल्पो की गति कम हो जाती है। इससे हमें प्राप्त होने ज्ञान को ठहरने में मदद मिलती है। अर्थात कम मेहनत में अधिक रिजल्ट मिलता है और हमें थकावट कम महसूस होती है।
जो व्यक्ति सरल स्वभाव के होंगे उनमे समेटने की शक्ति सहज ही आ जाती है। क्योंकि सरल स्वभाव वाले व्यक्ति में व्यर्थ संकल्प भी नही चलता है, इसलिये उनका समय भी व्यर्थ नहीं जाता है। अर्थात हमें जटिलता के स्थान पर सरलता को महत्व देना चाहिए।
निगेटिव संकल्प को मोड़ने और ब्रेक लगाने का अभ्यास करना जरूरी है। बिना समय गवाएं समर्थ संकल्प करना है अर्थात संकल्प किया और हमारा संकल्प सिद्ध हुआ। यह योग की रिद्धि-सिद्धि है। जो सिद्ध को प्राप्त होते है उनके संकल्प ,शब्द और कर्म भी सिद्ध होते है। उनका एक भी संकल्प व्यर्थ नही उठता है। सिद्ध व्यक्ति का संकल्प भी वही उठेगा जो सिद्ध होगा। उनके एक-एक संकल्प की वैल्यू है। ऐसी मान्यता कि जो व्यक्ति अपने श्रेठ संकल्पो को संभाल कर रखेगे वे सदा सम्पन्न रहेंगे और व्यर्थ संकल्प न चलने के कारण धोखा नही खायेंगे।
हम स्वयं को चेक करें कि अभी तक कितनी बार फेल हुए है। यदि हमें विजय प्राप्त हुई भी है तो इसमे कितना समय लगा है। इस यात्रा में हमारे स्व की स्थिति कैसी रही है।
महीन बुद्धि वाले व्यक्ति हर परिस्थिति में अपने को मोल्ड कर लेते है। ऐसे व्यक्ति में सामना करने का साहस होता है और कभी समस्या से घबराते नही है। जब हम हल्के होंगे तभी अपने को मोल्ड कर सकेंगे। अर्थात् जब हम नरम और गरम दोनो होंगे तभी अपने को मोल्ड कर सकेंगे। यदि किसी एक की भी कमी होगी तो मोल्ड नही हो सकेंगे।
कोई चीज गरम् करके ही नरम किया जाता है इसके बाद उसे मोल्ड किया जाता है। चेक करें कि हमारे बुद्धि की तराजू में नरम और गरम दोनों एक समान रहते है। नरमाई और गरमाई में सन्तुलन होना जरूरी है। नरमाई रूप- स्नेह स्वरूप अर्थात निर्माण स्वरूप और गरमाई रूप- शक्ति स्वरूप है। यदि स्नेह -निर्माण स्वरूप और शक्ति स्वरूप दोनों में से किसी एक चीज की कमी होगी तब हम अपने को मोल्ड नही कर पाएंगे। अर्थात कभी गर्म तो कभी नरम होने की जरूरत है। कभी-कभी अति निर्माणता और स्नेह अथवा अति शक्तिशाली का अनुभव भी नुकसान करती है। इन दोनांे विशेषताओं में जितनी भी समानता होगी उतनी ही सफलता होगी।
(यह लेख प्रजापिता ब्रह्ामाकुमारी राज योग द्वारा चलाये जाने वाले प्रतिदिन के मुरली ज्ञान पर आधारित है।)
दूसरा अध्याय अगले दिन के लिए ................................................ जारी
प्रस्तुति - मनोज कुमार श्रीवास्तव
सहायक निदेशक/प्रभारी मीडिया सेन्टर
विधान सभा,देहरादून।
मो0 9412074595
Bahut achha sir ji
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